गौवंश की सिसकती आत्मा और सरकार की चुप्पी
देवप्रयाग /टिहरी (गिरीश भट्ट )देवभूमि उत्तराखंड मे ही नही हिन्दू धर्म मे जहाँ गाय को माता का दर्जा प्राप्त है, वहीं देवप्रयाग के मूल्या गाँव में बुधवार रात को जो घटित हुआ, वह हृदय को झक जोर देने वाला दृश्य है वही हमारे सामाजिक और प्रशासनिक तंत्र के लिये शर्मनाक घटना है। ऋषिकेश-बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर एक अज्ञात वाहन ने सड़क मे तीन गौ माता एक सांड को कुचल कर मौत कि नींद सुला दिया और तीन गौ माता को दर्दनाक जख्म देकर गंभीर रूप से घायल कर दिया। सुबह जब ग्रामीणों ने इस वीभत्स दृश्य को देखा, तो एक प्रश्न हर किसी के मन में कौंधा आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं?
यह केवल एक सड़क हादसा नहीं है। यह उस चुप्पी का परिणाम है, जो वर्षों से हम बेसहारा गौवंश की पीड़ा पर साधे हुए हैं। यह उस लापरवाही का दुष्परिणाम है, जिसमें गाँवों से खदेड़े गए पशु सड़कों पर मृत्यु का इंतज़ार कर रहे हैं, इन मूक पशुओं पर एक तरफ हिंसक जानवरों का भय दूसरी ओर सड़क पर वाहनों भय बना रहत है दोनों तरफ उनके सर पर मृत्यु छाया मंडराता रहता है सरकार इन लावारिस गोवंश के लिए हर साल योजना तो बनती है लेकिन सरकार की गौ-संरक्षण योजनाएँ कागजों तक सिमट कर रह जाती हैं। और धरातल पर यही नजारा देखने को मिलता है।
इस घटना के बाद स्थानीय लोगों ने आक्रोश जताया, प्रशासन को सूचना दी, पशु चिकित्सक आए, घायल गायों का उपचार हुआ और मृत पशुओं को जेसीबी से हटाया गया। लेकिन असल सवाल वहीं का वहीं खड़ा है इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कौन?
ग्रामीणों के अनुसार, आस-पास के गाँवों से लोग गाय और बछड़ों को यहाँ लाकर कब छोड़ जाते हैं किसी को पता ही नही चलता है। जंगल में हिंसक जानवरों से डर कर ये बेसहारा जानवर सड़क किनारे आ टिकते हैं। परन्तु यहा भी मौत उनका पिछा नही छोडती है।यह रोज़मर्रा का दृश्य बन चुका है कहि न कही इस प्रकार कि घटना घटती रहती है। अब तक वाहनों व हिंसक जानवरों चपेट में आकर कई गौ मता अपनी जान गवां चुके हैं, लेकिन शासन व प्रशासन सहित हम सभी कि आँखें अब तक भी बंद हैं।
समाजसेवी गणेश भट्ट का यह सवाल बहुत सटीक है — “गौ-संरक्षण योजनाएँ कहाँ हैं?” क्या यह योजनाएँ सिर्फ चुनावी घोषणाओं तक सीमित हैं? गौशालाएँ कहाँ हैं? यदि हैं भी, तो क्या उनके संचालन के लिये व्यवस्था सरकार ईमानदारी से करवा रही है? उत्तराखंड जैसे धार्मिक राज्य में जहाँ गाय को पूजा जाता है, वहीं उसकी मौत का जिम्मेदार बनना हमारा दोहरा आचरण नहीं तो और क्या है?
इस घटना ने हमारी नैतिक जिम्मेदारी पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। सरकार के साथ-साथ समाज को भी आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है। बेसहारा पशु केवल प्रशासन की नहीं, हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी हैं। यदि समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो ऐसी घटनाएँ आम हो जाएँगी, और हमारी संवेदनाएँ हमेशा की तरह सड़क पर बिछी लाशों के नीचे दम तोड़ती रहेंगी।
आज ज़रूरत है एक समग्र नीति की जहाँ बेसहारा पशुओं के लिए सुरक्षित आश्रय हों, जहाँ हर गाँव में कार्यरत गौशालाओं को अनुदान और निगरानी मिले, और जहाँ पशु हित को राजनीतिक भाषणों से नहीं, ज़मीनी कार्यों से मजबूती मिले।
गाय केवल आस्था का हि सवाल नहीं है, बल्कि एक जिम्मेदारी है। और इस जिम्मेदारी से मुँह मोड़ना हमारी धार्मिकता नहीं, हमारी संवेदनहीनता को दर्शाता है।