सतयुग का पावन तीर्थ: देवप्रयाग

गिरीश चंद्र भट्ट

उत्तराखंड में स्थित देवप्रयाग को केदारखंड में सतयुग का पावन तीर्थ कहा गया है। यह स्थान पंच प्रयागों में पहला और अत्यंत महत्वपूर्ण है। देवप्रयाग न केवल एक तीर्थस्थल है, बल्कि यह दिव्य 108 तीर्थ क्षेत्रों में भी शामिल है। यह स्थान गृद्धाचल, नरसिंहाचल, दशरथाचल आदि पवित्र पर्वतों से घिरा हुआ है और ‘सुदर्शन क्षेत्र’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।

यहां भगवान श्रीराम का प्राचीन मंदिर स्थित है। यह मंदिर संगम स्थल के पास स्थित है, जहां गौमुख से आने वाली भागीरथी नदी और अलकापुरी से आने वाली अलकनंदा नदी का संगम होता है। मान्यता है कि इसी संगम स्थल पर गुप्त सरस्वती नदी भी मिलती है, जिससे यह त्रिवेणी संगम बनता है। ठीक संगम स्थल पर स्थित ब्रह्मकुंड सदैव जलमग्न रहता है और यहां स्नान का विशेष महत्व है।

देवप्रयाग की वादियाँ, हिमालय की गोद में स्थित यह क्षेत्र, प्राचीनकाल से ही साधकों और योगियों के लिए तपस्थली रहा है। यहां की शांतिपूर्ण और आध्यात्मिक ऊर्जा साधकों को आत्मिक उन्नति की ओर प्रेरित करती है। यह स्थान उत्तराखंड के टिहरी जनपद में, ऋषिकेश से 70 किलोमीटर की दूरी पर बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है।

ऐसा माना जाता है कि छठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने यहां श्रीराम मंदिर की स्थापना की थी, जिसे आज रघुनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। कुछ इतिहासकार इसकी स्थापना टिहरी रियासत (1815) के समय से जोड़ते हैं, जब गढ़वाल नरेश सुदर्शन शाह ने टिहरी को राजधानी बनाया था।

पुराणों के अनुसार, सतयुग में राजा भगीरथ ने अपने पितरों के उद्धार हेतु गंगा को धरती पर लाने के लिए इसी स्थान पर कठोर तपस्या की थी। भागीरथी और अलकनंदा के संगम के बाद इस नदी को ‘गंगा’ नाम प्राप्त हुआ, जिससे यह स्थान पवित्र तीर्थ बन गया।

केदारखंड में वर्णित है कि ब्रह्माजी ने ब्रह्मकुंड पर हजारों वर्षों तक भगवान विष्णु की तपस्या की थी। विष्णुजी ने प्रसन्न होकर उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान किया था और उसी में बैठकर ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी। इसी कारण यह स्थान ‘ब्रह्मतीर्थ’ और ‘सुदर्शन क्षेत्र’ के नाम से जाना जाता है।

यहां पर सूक्ष्म रूप में देवी-देवता नित्य स्नान के लिए आते हैं और सिद्ध पुरुषों का वास भी माना जाता है, जिनके दर्शन दुर्लभ होते हैं। चातुर्मास के समय यहां स्नान का विशेष महत्व है। एक श्लोक के अनुसार:

“मध्याह्ने मुनि शार्दूल, नूनम् आयांति नित्यशः।
सर्वे ऋषिगणा देवा, स्नानं कर्तुं द्विजोत्तम॥”

(अर्थात: दोपहर के समय मुनिश्रेष्ठ, ऋषिगण और देवता प्रतिदिन यहां स्नान करने के लिए आते हैं।)

कुछ भाग्यशाली लोग विशेष अवसरों पर इस क्षेत्र की दिव्यता का अनुभव कर पाते हैं। स्कंद पुराण के अनुसार, देव शर्मा नामक एक ब्राह्मण ने यहां कठोर तपस्या की थी। श्रीहरि विष्णु ने उन्हें चतुर्भुज रूप में दर्शन दिए और उनके आग्रह पर इस स्थान को वास हेतु चुना। त्रेतायुग में श्रीराम ने रावण-वध के पश्चात ब्रह्महत्या दोष से मुक्ति के लिए यहीं तपस्या की थी। तभी से यहां विष्णु के चतुर्भुज रूप तथा श्रीराम के रूप में पूजा होती है।

माना जाता है कि जिस शिला पर भगवान विष्णु ने देव शर्मा को दर्शन दिए, उस पर उन्हीं की मूर्ति उकेरी गई है। मूर्ति के पीछे स्थित गर्भगृह अब बंद है। कभी मंदिर के पुजारी वहीं से संगम पर स्नान के लिए जाते थे। पूरे भारत में श्रीराम की छह फीट ऊंची ऐसी दिव्य प्रतिमा कहीं और नहीं मिलती।

देवप्रयाग में आदि विश्वेश्वर महादेव जी का मंदिर भी है, जिसे स्वयं भगवान राम ने स्थापित किया था। साथ ही टोडेश्वर, टाटेश्वर, बेलेश्वर, बागेश्वर सहित पंच शिव मंदिर भी इस क्षेत्र में स्थित हैं। रामकुंड, बेतालशीला और सूर्यकुंड इस क्षेत्र के अन्य प्रमुख स्थल हैं। रामकुंड में श्रीराम ने तपस्या कर ब्रह्महत्या दोष से मुक्ति पाई थी।

बेतालशीला भागीरथी नदी के मध्य स्थित एक विशाल शिला है, जहां पिंडदान करने से पितरों को मोक्ष मिलता है। केदारखंड के अनुसार यह स्थान पिंडदान के लिए गया से भी श्रेष्ठ है।

सूर्यकुंड, बागी गांव के पास स्थित है। मान्यता है कि यहां स्नान करने से कुष्ठ रोग भी दूर हो जाता है। मेधातिथि नामक ब्राह्मण ने यहां सूर्य की कठोर साधना की थी और सूर्यदेव के वरदान स्वरूप यह स्थान सूर्यलोक में निवास का पात्र बन गया। माघ शुक्ल सप्तमी को यहां स्नान करने से व्यक्ति दीर्घकाल तक सूर्यलोक में रहता है।

इस प्रकार देवप्रयाग न केवल पौराणिक महत्व वाला तीर्थ है, बल्कि यह आध्यात्मिक साधना, तप और आत्मिक जागरण का भी दिव्य केंद्र है।

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